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ग़ज़ल
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी मा'शूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
अयाँ जब हर जगह देखूँ उसी के नाज़-ए-पिन्हाँ को
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
जी है वाबस्ता मिरा उन की हर इक आन के साथ
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
मिज़्गान-ए-तर हूँ या रग-ए-ताक-ए-बुरीदा हूँ
जो कुछ कि हूँ सो हूँ ग़रज़ आफ़त-रसीदा हूँ
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हम सभी मेहमान थे वाँ तू ही साहब-ख़ाना था