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ग़ज़ल
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
इतने सादा भी नहीं हम कि न इतना समझें
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
ज़िंदा होना और न जीना तुम ही कहो क्या मुमकिन है
ख़ुद को कर देना अन-देखा तुम ही कहो क्या मुमकिन है
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
कोई आहट कोई सरगोशी सदा कुछ भी नहीं
घर में इक बेहिस ख़मोशी के सिवा कुछ भी नहीं
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
देता था जो साया वो शजर काट रहा है
ख़ुद अपने तहफ़्फ़ुज़ की वो जड़ काट रहा है
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
ऐसा होने नहीं देता था मगर होने को है
ज़िंदगी अब तो न जीने में बसर होने को है