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ग़ज़ल
किस ने चमन में काटी है अम्न-ओ-अमाँ की शाख़
दहशत से एक पत्ता भी अब डोलता नहीं
ख़ालिक़ हुसैन परदेसी
ग़ज़ल
क्या जाने शाख़-ए-वक़्त से किस वक़्त गिर पड़ूँ
मानिंद-ए-बर्ग-ए-ज़र्द अभी डोलता हूँ मैं