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ग़ज़ल
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
हरीफ़-ए-वक़्त हूँ सब से जुदा है राह मिरी
न क़स्र-ए-शाह से निस्बत न ख़ानक़ाह मिरी
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
वो मिरा पहले-पहल दाख़िल-ए-ज़िंदाँ होना
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
जफ़ा-ए-पीर सब्क़त ले गई बेदाद-ए-तिफ़्लाँ पर