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ग़ज़ल
दोस्तो उस चश्म ओ लब की कुछ कहो जिस के बग़ैर
गुलसिताँ की बात रंगीं है न मय-ख़ाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मनअ' क्यूँ करते हो इश्क़-ए-बुत-ए-शीरीं-लब से
क्या मज़े का है ये ग़म दोस्तो ग़म खाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू
दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो