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ग़ज़ल
कूचे में तिरे शोर-ए-फ़ुग़ाँ कम नहीं लेकिन
दरवेश-ए-दुआ-गो की सदा और ही कुछ है
इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
शहीद है 'साक़ी'-ए-दुआ-गो कशीदा क्यूँ इस क़दर हुए हो
कभी तो ऐ यार देखने को ज़रा क़तील-ए-नज़र को चलिए
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
मैं सर-ए-शाम दु'आ-गो हूँ ख़ुदा से 'अर्पित'
वो जो आ जाए तो इस घर का अंधेरा टूटे
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
इक मिरी ख़ातिर जो थे सब के दुआ-गो क्या हुए
उफ़ ये महरूमी कि है सहमा हुआ आलम तमाम