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ग़ज़ल
और कोई बात सर-ए-बज़्म-ए-सुख़न कब निकली
बस तिरी बात ही निकली है यहाँ जब निकली
मेहदी बाक़र ख़ान मेराज
ग़ज़ल
सर-ए-बज़्म-ए-तलब रक़्स-ए-शरर होने से डरती हूँ
कि मैं ख़ुद पर मोहब्बत की नज़र होने से डरती हूँ
रेहाना क़मर
ग़ज़ल
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
मिरी आँख कैसे छलक गई मुझे रंज है ये बुरा हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
बे-इख़्तियार हम जो सर-ए-बज़्म रो दिए
कितने सुनहरे ख़्वाब इन आँखों ने खो दिए
महेंद्र प्रताप चाँद
ग़ज़ल
नाज़ से मुझ को सर-ए-बज़्म जो साक़ी ने दिया
हाथ थर्राए कुछ इस तरह कि साग़र उल्टा
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
उस की आँखों ने सर-ए-बज़्म ठहरने न दिया
सब्र मज़लूम को ज़ालिम की नज़र ने न दिया
सय्यद ग़ुलाम मोहम्मद मस्त कलकत्तवी
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल कुछ जो सर-ए-बज़्म कहा है मैं ने
वो ये समझे हैं कि इल्ज़ाम दिया है मैं ने