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ग़ज़ल
महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दुज़-दीदा निगाहों में इक इल्हाम की दुनिया
नाज़ुक से तबस्सुम में इक एजाज़ का आलम
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
तेरी दुज़-दीदा निगाहें ये पता देती हैं
कि इन्हीं चोरों ने दिल मेरा चुरा रक्खा है
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
उन की दुज़-दीदा-निगाही का तक़ाज़ा है कि अब
हम किसी और को क्या ख़ुद को भी देखा न करें
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
तू ने दुज़-दीदा निगाहें जब लड़ाईं ग़ैर से
हो गए नाचार प्यारे जान कर अंजान हम