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ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़याल-ए-ज़ब्त-ए-उल्फ़त है तो 'अहसन' फिर ख़तर कैसा
न धड़के दिल भी सीने में वो इत्मीनान पैदा कर