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ग़ज़ल
जो नक़्श-ए-क़दम वक़्त के हैं रेत पे ऐ 'तल्ख़'
कुछ ऐसे फ़लक पर भी हैं कुछ ज़ेर-ए-ज़मीं भी
मनमोहन तल्ख़
ग़ज़ल
'तल्ख़' हमारे होश के आलम का है रंग-ए-सुख़न कुछ और
जिस पर वज्द में है इक दुनिया वो तो ग़ैर-शुऊरी है
मनमोहन तल्ख़
ग़ज़ल
मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना
तो फिर 'एहसास-जी' इस की इशाअ'त क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
अजीब तर्ज़-ए-तग़ज़्ज़ुल है ये मियाँ 'एहसास'
कि जिस्म-ओ-रूह को इक सुर में गाना पड़ता है