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ग़ज़ल
मिरे बच्चों कहाँ तक बाप के काँधों पे बैठोगे
किसी दिन फ़ेल उस गाड़ी का इंजन हो भी सकता है
हसीब सोज़
ग़ज़ल
मैं तो इंजन की गले-बाज़ी का क़ाइल हो गया
रह गए नग़्मे हुदी-ख़्वानों के ऐसी तान ली
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
फिरेगा और कितने दिन ख़याली पार घोड़े पर
उड़ेगा शेर-गोई में न इंजन का धुआँ कब तक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बिचारे रेल के इंजन ने भी कानों मैं उँगली दी
ग़म-ए-जानाँ के मारों की फ़ुग़ाँ मा'लूम होती है
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
ग़ज़ल
मचाए शोर-ओ-ग़ुल आह-ए-शरर-अफ़्शाँ करे हर-दम
यही औसाफ़ लाज़िम है तो आशिक़ क्यूँ हो इंजन हो