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ग़ज़ल
हिक़ारत से न देखो दिल को जाम-ए-जम भी कहते हैं
इसी ख़ाक-ए-तपाँ को फ़ातेह-ए-आलम भी कहते हैं
सहाब क़ज़लबाश
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
बदला न मेरा रंज-ओ-अलम हाए रे क़िस्मत
दिल और मचल जाता है दिल-गीर के आगे
मक़्सूद आलम ख़ाँ आलम बरेलवी
ग़ज़ल
मिला क्या क्या न उन से हम को ऐ 'आलम' मोहब्बत में
सितम ढाया करें वो हम तो एहसानात कहते हैं
मक़्सूद आलम ख़ाँ आलम बरेलवी
ग़ज़ल
बड़े चर्चे हैं 'आलम' आप की ख़ाना-ख़राबी के
ख़ुदा का शुक्र है मक़्ते में आ कर बैठ जाते हैं