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ग़ज़ल
फ़ैज़ाबाद से पहुँचा हमें ये फ़ैज़ 'अख़्तर'
कि जिगर पर लिए हम दाग़-ए-जिगर जाते हैं
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से
लाए हैं मेरठ जो आख़िर मुझ को फ़ैज़ाबाद से
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन
लोग तेरे जुर्म देखेंगे सबब देखेगा कौन
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है
गुफ़्तुगू उस की है लहजे में असर मेरा है