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ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दिल है बस अब अलम से शक़ यास से रंग रुख़ है फ़क़
देखेंगे हम कब ऐ 'क़लक़' आँखों से मर्क़द-ए-अली
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
किसी ने कह दी कोई बात हक़ मा'लूम होता है
तभी चेहरे का तेरे रंग फ़क़ मा'लूम होता है