महरूमियत पे किस लिए करते हो तुम क़लक़
महरूमियत पे किस लिए करते हो तुम क़लक़
अब बढ़ के छीन लेना है ज़ालिम से अपना हक़
मेरे ख़िलाफ़ कहता है जो कुछ भी वो कभी
हर लफ़्ज़ उस का होता है ख़ुद उस पे मुंतबक़
सादा-मिज़ाज रखती है मेरी हर इक ग़ज़ल
होता नहीं है शे'रों में इक लफ़्ज़ भी अदक़
वो मुस्कुरा उठे तो मुझे इस तरह लगा
चेहरे पे जैसे आ गई रंगीनी-ए-शफ़क़
शो'ले तअ'स्सुबात के भड़का रहे हैं वो
नफ़रत की पाठशाला में लेते हैं जो सबक़
लिक्खा है उन का नाम बड़े एहतिराम से
अपनी बयाज़-ए-दिल का है रौशन हर इक वरक़
ए'जाज़ ये भी देखा है अहल-ए-जहान ने
अंगुश्त के इशारे क़मर हो गया था शक़
आईना अपने शेर को करने लगा हूँ मैं
चेहरा मिरे हरीफ़ का होने लगा है फ़क़
फिर धूप से पड़ेगा मुझे वास्ता 'सईद'
मेरी नज़र के आगे है सहरा-ए-लक़्क़-ओ-दक़
स्रोत:
शायर (Pg. 18)
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- प्रकाशक: नाज़िर मोमान सिद्दीक़ी
- प्रकाशन वर्ष: 2012
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