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ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम उस फ़रीक़ में नहीं वो और लोग हैं
दुनिया के नेक-ओ-बद से जो रखते हैं आगही
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ
कि फ़लक के पार पहुँचे तफ़-ए-आह-ए-दर्द-मंदाँ
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
हिरा क़ासमी
ग़ज़ल
आ तो गए हैं दश्त-ए-मोहब्बत में क़ाफ़िले
लेकिन कोई फ़रीक़-ए-जुनूँ मो'तबर भी है