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ग़ज़ल
करवटें लेने दो फ़र्श-ए-ख़ाक पर नख़चीर को
बे-धड़क हो कर निकालो तुम जिगर से तीर को
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
न फ़र्श-ए-ख़ाक पे ठहरेंगे नक़्श-ए-पा की तरह
रवाँ-दवाँ हैं फ़ज़ाओं में हम हवा की तरह
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
किरन के हक़ में ये सूरज का फ़ैसला क्यूँ है
जो फ़र्श-ए-ख़ाक पुकारे तो दूर हट जाना
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
जो लूटते हैं मज़े फ़र्श-ए-गुल के बिस्तर पर
वो फ़र्श-ए-ख़ाक पे सोएँगे इस जहान के बा'द
एम. नसरुल्लाह नसर
ग़ज़ल
ऐसी ही कुछ कशिश है जो हूँ फ़र्श-ए-ख़ाक पर
वर्ना बुलंदियों से भी ऊँचा गया हूँ मैं
आदिल असीर देहलवी
ग़ज़ल
बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे
फेंक के फ़र्श-ए-ख़ाक पर भूल गया ख़ुदा मुझे
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
आख़िरी बिस्तर भी 'आमिर' तेरा फ़र्श-ए-ख़ाक था
मुहम्मद याक़ूब आमिर
ग़ज़ल
फ़र्श-ए-ख़ाक अब अहल-ए-मसनद को नहीं होता नसीब
बोरिया-बाफ़ आज ज़ेब-ए-तख़्त-ए-सुल्ताँ हों तो क्या
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
रक़्स-ए-ज़मीं को गर्दिश-ए-अफ़्लाक चाहिए
नक़्श-ए-क़दम को फ़र्श-ए-ख़स-ओ-ख़ाक चाहिए
नरजिस अफ़रोज़ ज़ैदी
ग़ज़ल
नस्ब करें मेहराब-ए-तमन्ना दीदा ओ दिल को फ़र्श करें
सुनते हैं वो कू-ए-वफ़ा में आज करेंगे नुज़ूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ये रंग पाश हुए हैं वो आज ऐ 'नादिर'
है फ़र्श-ए-बज़्म-ए-तरब लाला-ज़ार होली में