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ग़ज़ल
रब्त-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ अज़ल से सच्चा ये अफ़्साना है
शम्अ' है जिस महफ़िल में रौशन देखो वहीं परवाना है
हैदर हुसैन फ़िज़ा लखनवी
ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जो हुस्न-ओ-इश्क़ से अम्न-ओ-अमाँ में रहते हैं
कहाँ के लोग हैं वो किस जहाँ में रहते हैं
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़याल-ए-हुस्न-ए-बे-मिसाल दस्तरस में आ गया
ख़ुदी पे इख़्तियार मेरा पेश-ओ-पस में आ गया
जानी लखनवी
ग़ज़ल
ख़ल्लाक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ बड़ा दिल-नवाज़ है
तख़्लीक़-ए-शम्अ' होते ही परवाना बन गया
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
बाग़ तक क्या कारवान-ए-हुस्न-ए-बे-परवा गया
बू परेशाँ है रुख़-ए-गुल को पसीना आ गया