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ग़ज़ल
प्यार क्यूँ आए न अपनी फ़ितरत-ए-मा'सूम पर
अपने दुश्मन को भी अपना राज़-दाँ करते हैं हम
तालिब देहलवी
ग़ज़ल
हुस्न की फ़ितरत-ए-मा'सूम थी पाबंद-ए-हिजाब
इश्क़ से सीख लिया जल्वा-नुमा हो जाना
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
ग़ज़ल
हुस्न-ए-फ़ितरत के अमीं क़ातिल-ए-किरदार न बन
शोहरत-ए-ग़म के लिए रौनक़-ए-बाज़ार न बन
फ़ितरत अंसारी
ग़ज़ल
मिरी ख़ुद्दार 'फ़ितरत' की ख़ुदा ही आबरू रक्खे
ख़िज़ाँ के दौर में अज़्म-ए-बहाराँ ले के चलता हूँ
फ़ितरत अंसारी
ग़ज़ल
तुझ से और चश्म-ए-तवज्जोह का गिला क्या मा'नी
तेरा फ़ितरत तिरे इख़्लास के क़ाबिल भी नहीं
फ़ितरत अंसारी
ग़ज़ल
बू-ए-गुल किस क़दर थी हयात-आफ़रीं
ख़्वाब से 'फ़ितरत'-ए-ख़ुश-सुख़न जाग उट्ठा