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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है जिस राह-ए-यक़ीं पर गामज़न पा-ए-ख़िरद हर-दम
उसी राह-ए-गुमाँ पर मुद्दतों चलता रहा मैं भी
अकरम नक़्क़ाश
ग़ज़ल
गामज़न हूँ मैं जहाँ जोश-ए-जुनूँ में ऐ दोस्त
वो तिरी राहगुज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं