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ग़ज़ल
हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
तुम्हारे मो'तक़िद गबरू मुसलमाँ होते जाते हैं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ये मुटियारें छैल-छबेली ये गबरू बाँके अलबेले
जाती है किस रूप नगर को ये टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
शुरेश चंद्र शौक
ग़ज़ल
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता