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ग़ज़ल
और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
गोरे गालों पर तिरे ज़ुल्फ़ें ये लहराती नहीं
यासमीं-ज़ार-ए-सबाहत में है जोड़ा साँप का
रिन्द लखनवी
ग़ज़ल
कैसे गले मिलते हैं गले से अब के बहाराँ भूल गए
यारों ने भरपूर गलों का काम किया तलवारों से