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ग़ज़ल
वही साअत-ए-ग़म-ए-आरज़ू जो हमेशा दिल में बसी रही
है ख़ुदा का शुक्र कि 'आफ़रीं' वो हमारे सर से तो टल गई
गुलनार आफ़रीन
ग़ज़ल
फिर अपना अपना कफ़न ले के चल दिए सब लोग
किसी से बार-ए-ग़म-ए-मर्ग-ए-मुश्तरक न उठा
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
फ़ज़ा है सुस्त ग़म-ए-मर्ग हम-ख़यालाँ सख़्त
हुजूम-ए-शहर में होने को हम-नवा थे बहुत
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
ख़्वाहिश-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-मर्ग ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
ज़िंदगी चंद खिलौनों से बहल जाती है
कलीम उस्मानी
ग़ज़ल
है ग़म-ए-मर्ग-ए-अदू भी बुत-ए-काफ़िर का बनाव
क़तरा-ए-अश्क से हैं रिश्ता-ए-गौहर पलकें
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
ग़म-ए-हयात से 'फ़ैज़ी' फ़रार मुमकिन है
निगाह-ए-मर्ग ने की बे-रुख़ी तो क्या होगा