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ग़ज़ल
इक आह जो शोला-बार हुई आलम में शरारे फैल गए
इक मौज जो मुज़्तर हो के उठी दरिया का लहू गरमा ही गई
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
वो महफ़िल से जुदा भी हो चुके महफ़िल को गरमा कर
मगर महफ़िल में अब तक गर्मी-ए-महफ़िल की बातें हैं
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
तुख़्म में रोईदगी हर नख़्ल में बालीदगी
मौसम-ए-सरमा-ओ-गरमा बाद-ओ-बाराँ अब भी है
बशीरुद्दीन अहमद देहलवी
ग़ज़ल
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में
पेश आए ब-गर्मी भी तो गरमा के दिनों में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वो सोज़-ओ-गुदाज़-ए-दिल अब हम में कहाँ बाक़ी
जो रूह को तड़पा दे जो क़ल्ब को गरमा दे
अब्दुल रहमान ख़ान वस्फ़ी बहराईची
ग़ज़ल
मौसम-ए-गर्मा की आमद मिरे सहराओं में 'कैफ़'
'ऐन मुमकिन है दरख़्तों पे ख़ज़ाने लग जाएँ
सय्यद हुज़ैफ़ा कैफ़
ग़ज़ल
बे-रह-ओ-बे-रहनुमा गर्म-ए-सफ़र है क़ाफ़िला
फ़ाएदा क्या इस तरह की सई-ए-ला-हासिल में है