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ग़ज़ल
नशात-ए-रूह वज्ह-ए-गर्मी-ए-महफ़िल नहीं होता
वो इक नग़्मा जो आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल नहीं होता
फ़ैज़ झंझानवी
ग़ज़ल
मिरे सोज़-ए-दरूँ मेरी नवा का फ़ैज़ है 'रिज़वी'
तिरा होना तो वज्ह-ए-गर्मी-ए-महफ़िल नहीं होता
सय्यद एजाज़ अहमद रिज़वी
ग़ज़ल
सहर होने को है गुल शम्अ' है रुख़्सत हैं परवाने
बजा अब ए'तिबार-ए-गर्मी-ए-महफ़िल कहाँ तक है
तालिब देहलवी
ग़ज़ल
मेरे बा'द अब गर्मी-ए-महफ़िल के हैं सब मुद्दई
बुझ गया सूरज तो फिर तारों की ताबानी बढ़ी
शाैकत वास्ती
ग़ज़ल
न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें
मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
सब जज़्ब-ए-आरज़ू की तमाज़त का खेल है
दिल सर्द हो तो गर्मी-ए-महफ़िल भी कुछ नहीं