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ग़ज़ल
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क्या दबदबा-ए-नादिर क्या शौकत-ए-तैमूरी
हो जाते हैं सब दफ़्तर ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब आख़िर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से
कि जिन को डूबना हो डूब जाते हैं सफ़ीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं बहर-ए-फ़िक्र में हूँ ग़र्क़ इस लिए 'नायाब'
गुहर मुझे भी कोई ज़ेर-ए-आब मिल जाए
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा
जो आप्-ही मर रहा हो उस को गर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
नहीं शराब से रंगीं तो ग़र्क़-ए-ख़ूँ हैं कि हम
ख़याल-ए-वज़्-ए-क़मीस-ओ-लिबादा रखते हैं