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ग़ज़ल
चुभन सहते हैं उन की पर उन्हें खुलने नहीं देते
हमारे दरमियाँ ऐसे भी कुछ गठ-जोड़ आते हैं
ग़ज़नफ़र
ग़ज़ल
वरा-ए-इंसाँ कहीं तो ज़ुल्मत का कोई गठ-जोड़ है ख़ुदा से
क़रीब रहता है इस क़दर रौशनी के साया सवाल ये है
इदरीस आज़ाद
ग़ज़ल
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं