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ग़ज़ल
शाहिद-ए-गुल मोतियों में लद रहे हैं आज-कल
अब्र-ए-तर रहता है गौहर-बार क़ैसर-बाग़ में
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
वो क्यूँ मुझ को तसल्ली दें वो क्यूँ पोछें मिरे आँसू
घिरा है अब्र-ए-ग़म आँखों को गौहर-बार रहने दें
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
इस ज़ियाँ-ख़ाने में इक क़तरे पे क्या क्या गुज़री
कभी आँसू कभी शबनम कभी गौहर बन के
हफ़ीज़ होशियारपुरी
ग़ज़ल
फ़व्वारे छूटते हैं मिज़ा से सरिश्क के
देखो तो मेरी चश्म-ए-गुहर-बार की तरफ़