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ग़ज़ल
इस चश्म-ए-ग़ज़ालें को मय-ख़ाना-ए-दिल पाया
उस रू-ए-निगारीं को फ़िरदौस-ए-नज़र देखा
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें