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ग़ज़ल
रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है
दिल वो मुजरिम है कि ख़ुद अपनी सज़ा माँगे है
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किस के घर जाएँ कि इस वा'दा-शिकन को भूलें
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
हम ने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर