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ग़ज़ल
ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
तिरी बला से गिरोह-ए-जुनूँ पे क्या गुज़री
तू अपना दफ़्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ सँभाल के रख
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
तू गिरोह-ए-फ़ुक़रा को न समझ बे-जबरूत
ज़ात-ए-मौला में यही लोग समा सकते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
इरफ़ान सत्तार
ग़ज़ल
बहुत हम को रुलाया माज़ी-ओ-इमरोज़ ने सो अब
नशात-ए-गिर्या ऐसा है कि मुस्तक़बिल पे रोते हैं
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके
न हिजरतों का 'अज़ाब सहते हुए मुसाफ़िर घरों को लौटे
हसन अब्बास रज़ा
ग़ज़ल
नहीं कुछ इस से मुख़्तलिफ़ गिरोह-ए-बज़्म-ए-रक़्स-ओ-मय
निकल गया जो गुलसिताँ में ख़्वाब देखता हुआ
शाद आरफ़ी
ग़ज़ल
कोई नाव बहर में थी रवाँ कई उस में बैठे थे मह-विशाँ
कहीं उस गिरोह के दरमियाँ दुर-ए-नाज़ भी वो सवार था
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
अपनी तन्हाई का शिकवा तुझ को गिरोह-ए-ग़ैर से क्यूँ
ये तो हवस का दौर है प्यारे जिस को जिस से काम हुआ
सहबा अख़्तर
ग़ज़ल
गुफ़्तुगू करते हुए जाते हैं फूलों के गिरोह
और चुपके से दरख़्तों पे समर आता है