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ग़ज़ल
लर्ज़ां हैं क़दम अपने अब हम को सँभाले कौन
हम ने तो यहाँ कितने गिरतों को सँभाला है
मुसव्विर लखनवी
ग़ज़ल
गिरतों का सँभलना ख़ूब सही लेकिन ये सँभलने को गिरना
हैरत है कि चाहा क्यों तू ने जीने के ऐसे क़रीने को
क़य्यूम नज़र
ग़ज़ल
वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया