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ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
उस ने पेड़ से कूद के जाने कितने ग़ोते खाए
बंदर को जब लगा नदी में गिरा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
पंजा-ए-मेहर को भी ख़ून-ए-शफ़क़ में हर रोज़
ग़ोते क्या क्या है तिरा दस्त-ए-हिनाई देता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
यूँही कभी दुर-ए-मज़मूँ मिला नहीं 'नातिक़'
बहुत से ग़ोते खिलाती है इक गुहर की तलाश
नातिक़ गुलावठी
ग़ज़ल
इलाही किस से पूछें हाल हम गोर-ए-ग़रीबाँ का
कि सारे अहल-ए-महफ़िल चुप हैं उस ख़ामोश महफ़िल में
नूह नारवी
ग़ज़ल
इश्क़ की दरिया में ग़ोते खा रहा हूँ मैं तो अब
वो लहर है अब तो मंज़िल मेरी याँ साहिल में है
अनमोल सावरण कातिब
ग़ज़ल
यहीं है तू भरम में इस यूँ तकता रहता हूँ हर सू
लगाता ग़ोते सागर में सफ़ीना हो गया हूँ मैं
जय राज सिंह झाला
ग़ज़ल
अब तलक तो न मिला गुहर-ए-हक़ीक़त कोई
कितने ही ख़्वाब के दरियाओं में ग़ोते हुए देख