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ग़ज़ल
मुनाफ़िक़ दावा-ए-ईमाँ में सच्चा हो नहीं सकता
कि गोबर फिर भी गोबर है वो हलवा हो नहीं सकता
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
उड़ते पंछी प्यासी नज़रों की पहचान से आरी हैं
तेज़ हुई जाती हैं किरनें थाप सहेली गोबर थाप
अहसन शफ़ीक़
ग़ज़ल
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है