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ग़ज़ल
वो ज़हर-ए-ख़ंद जो घोले हैं चश्म ओ लब ने तिरे
तुझे ख़ुशी हो तो पूछें कि ज़ेर-ए-लब क्या है
सिद्दीक़ मुजीबी
ग़ज़ल
इस एक फ़िक्र ने घोले मिरी हयात में ग़म
तू दूर क्यूँ नहीं जाता मिरे वजूद में है
अब्दुर्राहमान वासिफ़
ग़ज़ल
इलाही ख़िज़्र कहूँ इश्क़ को कि ग़ोल-ए-तरीक़
कि राहबर भी ये है और सद्द-ए-राह भी है
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
ग़ज़ल
तौबा तौबा किस क़दर मुँह से टपकती है शकर
इस ज़बाँ से मीठे मीठे ज़हर घोले जाएँगे