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ग़ज़ल
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
है बुल-अजब ये ज़मज़मा-ए-सौत-ए-सरमदी
किस तरह आए मा'रिज़-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है
हम को मोहर्रम और रक़ीबों को ईद है
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
गुफ़्त-ओ-गू में ये नज़ाकत है कि अल्लाह अल्लाह
एक इक हर्फ़ भी मुश्किल से अदा होता है
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
मुमकिन है ख़ूब खुल के हो गुफ़्त-ओ-शुनीद आज
वो भी ख़फ़ा है हम भी हैं कुछ बद-गुमान से
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
याद है अब तक मुझे वो आलम-ए-गुफ़्त-ओ-शुनीद
रू-ब-रू-ए-दोस्त पैग़ाम-ए-ज़बानी याद है