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ग़ज़ल
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुबादा क़िस्सा-ए-अहल-ए-जुनूँ ना-गुफ़्ता रह जाए
नए मज़मून का लहजा नया करना पड़ेगा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ये है 'सीमाब' इक ना-गुफ़्ता ब-अफ़्साना क्या कहिए
वतन से कुंज-ए-ग़ुर्बत में चले आने पे क्या गुज़री
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
दिल में जो कुछ है वो कह दो दोस्त से वर्ना 'सलीम'
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता दिलों का फ़ासला बन जाएगा
सलीम अहमद
ग़ज़ल
तिरे ग़याब में जो कुछ किया हिकायत मैं
कहीं वो गुफ़्ता ओ ना-गुफ़्ता से सिवा ही न हो
ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क
ग़ज़ल
गुफ़्तम कि मुख तिरा क्या गुफ़्ता सुरज सूँ बेहतर
गुफ़्तम कि कान का दर गुफ़्ता कि बह ज़ अख़्तर
फ़ाएज़ देहलवी
ग़ज़ल
जैसे हों लाशें दफ़्न पुराने खंडर की बुनियाद तले
एहसास दबे हैं कितने ही मिरी ना-गुफ़्ता रूदाद तले