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ग़ज़ल
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गुहर की आबरू
मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
गिराँ-बहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वर्ना
गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं बहर-ए-फ़िक्र में हूँ ग़र्क़ इस लिए 'नायाब'
गुहर मुझे भी कोई ज़ेर-ए-आब मिल जाए
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं 'अख़्तर' भी, गुहर भी
तुम बाम-ए-फ़लक से, कभी उतरो तो पता हो