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ग़ज़ल
ये माना ख़ामुशी उस की नए नग़्मे सुनाती है
मज़ा कुछ और ही लेकिन गुहर-बारी में रहता है
अब्दुस समी सिद्दीक़ी नईम
ग़ज़ल
ऐ 'ज़फ़र' लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़वाफ़ी फेर कर
ख़ामा-ए-दुर-रेज़ से हैं अब गुहर-बारी में हम
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
दिल में है ऐ 'बर्क़' उस बुत के दर-ए-दंदाँ की याद
ये गुहर अर्श-ए-बरीं का गोश्वारा हो गया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
'गौहर'-ए-सुख़नवर ही यादगार शा'इर है
बर्क़ को भी निस्बत है 'दाग़' के घराने से