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ग़ज़ल
जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ बू-ए-गुल-ओ-नग़्मा सा
इतने पर्दों में भी उस शोख़ की रुस्वाई है
वहशी कानपुरी
ग़ज़ल
दिल बुझा हो तो गुल-ए-नग़्मा भी नश्तर है 'ज़िया'
शिद्दत-ए-ग़म का इलाज अंजुमन-आराई नहीं
ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ज़मीन-ए-संग से गुल-हा-ए-नग़्मा की तवक़्क़ो क्या
बड़े आसान मिसरे भी बड़ी मुश्किल से निकले हैं
मुंफरीद गोरखपुरी
ग़ज़ल
फिर हुए आज बहम जाम-ए-गुल ओ नग़्मा-ए-शब
फिर मिरे माज़ी ने 'मुमताज़' बुलाया है मुझे