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ग़ज़ल
बहार आई है फिर गुल-पोश होगा गुल्सिताँ अपना
क़फ़स में याद आता है मुझे अब आशियाँ अपना
फ़ाज़िल काश्मीरी
ग़ज़ल
गुल-पोश बाम-ओ-दर हैं मगर घर में कुछ नहीं
ये सब नज़र का नूर है मंज़र में कुछ नहीं
ज़ौक़ी मुज़फ्फ़र नगरी
ग़ज़ल
कुछ उस के तसव्वुर में वो राहत है कि बरसों
बैठे यूँही इस वादी-ए-गुल-पोश में रहिए