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ग़ज़ल
गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा 'मजरूह'
मस्जिदों में की मैं ने जा के दाद-ख़्वाही भी
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ज़ीस्त के ख़स्ता शिकस्ता गुम्बदों में गाह-गाह
गूँजता है तेरी आवाज़ों का जादू आज भी
ख़ुर्शीद रिज़वी
ग़ज़ल
नगर हैं आफ़्ताब के, बरहना गुम्बदों के सर
सरों पे नूर के कलस, मैं नूर में उतर गया
अली अकबर नातिक़
ग़ज़ल
हमारे गुम्बदों की गूँज का चेहरा नहीं तो क्या
जो तुझ से कह नहीं सकते पस-ए-इज़हार है यूँ भी
रियाज़ लतीफ़
ग़ज़ल
अना के गुम्बदों में जिन का फ़न गूँजा किया बरसों
हुनर उन के भी बिकने रौनक़-ए-बाज़ार तक आए