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ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
हबीब जालिब
ग़ज़ल
दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं
देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद आते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम-ए-ज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है वही रहबर है ख़तरे में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
क्या जज़्ब-ए-इश्क़ मुझ से ज़ियादा था ग़ैर में
उस का हबीब उस से जुदा क्यूँ नहीं हुआ