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ग़ज़ल
बदलते जा रहे थे जिस्म अपनी हैअतें भी
कि रस्ता तंग था और यूँ कि उस में ख़म बहुत था
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तिरे जोश-ए-हैरत-ए-हुस्न का असर इस क़दर सीं यहाँ हुआ
कि न आइने में रही जिला न परी कूँ जल्वागरी रही