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ग़ज़ल
दम-ए-तक़रीर नाले हल्क़ में छुरियाँ चुभोते हैं
ज़बाँ तक टुकड़े हो हो कर मिरा अफ़्साना आता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
क़ातिल जो तेरे दिल में रुकावट न हो तो क्यूँ
रुक रुक के मेरे हल्क़ पे ख़ंजर तिरा चले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
तू ने चाहा था बुरा मेरा भला होने को है
आब-ए-ख़ंजर हल्क़ में आब-ए-बक़ा होने को है
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
साक़ी फ़िराक़-ए-जानाँ हल्क़ अपने का है दरबाँ
उतरे गले से फिर याँ क़िर्त-ए-शराब क्यूँ कर