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ग़ज़ल
हसीर-ए-इश्क़ को कब दख़्ल इस महफ़िल में है 'कैफ़ी'
बिसात उस की फ़क़त बैन-ओ-बुका आह-ओ-फ़ुग़ाँ तक है
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इक शख़्स के अशआ'र से शोहरा हुआ क्या क्या तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया