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ग़ज़ल
कब खुला उक़्दा 'रज़ा' जब कर चुके इज़हार-ए-शौक़
मुद्दआ' जाएज़ था हर्फ़-ए-मुद्दआ' मा'यूब था
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
कैसे छुपाऊँ सोज़-ए-दिल तू ही मुझे बता कि यूँ
शम्अ बुझा दी यार ने जैसे था मुद्दआ कि यूँ
एस ए मेहदी
ग़ज़ल
दौलत-ए-दीदार हस्ब-ए-मुद्दआ हासिल हुई
मिल गई जिस शख़्स को तक़दीर से इक्सीर-ए-इश्क़