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ग़ज़ल
आ मय-कदे में बन के बहार-ए-हवा-ए-सुब्ह
चल दे हर एक जाम को रक़्साँ किए हुए
सलाहुद्दीन फ़ाइक़ बुरहानपुरी
ग़ज़ल
दिन के सीने में धड़कते हुए लम्हों की क़सम
शब की रफ़्तार-ए-सुबुक-गाम से जी डरता है
जावेद कमाल रामपुरी
ग़ज़ल
रोके तो कोई 'उम्र-ए-सुबुक-ख़ेज़ को यारो
इक अस्प-ए-सुबुक-गाम है इक आब-ए-रवाँ है
डॉ. हबीबुर्रहमान
ग़ज़ल
अब न वो शोरिश-ए-रफ़्तार न वो जोश-ए-जुनूँ
हम कहाँ फँस गए यारान-ए-सुबुक-गाम के साथ