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ग़ज़ल
कोई मौसम कोई दिन हो इस से कुछ मतलब नहीं
हज़रत-ए-'बेख़ुद' को है पीने पिलाने से ग़रज़
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
जो सैर देखनी मंज़ूर है तुम्हें 'बेख़ुद'
भिड़ा दो हज़रत-ए-ज़ाहिद से मय पिला के मुझे
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
पा-ए-‘बेख़ुद’ में कुछ ऐसी बेड़ियाँ डाली गईं
जिन से बा'द-ए-हश्र भी छुटना न था तक़दीर में
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
मिरी क़िस्मत में ऐ 'बेख़ुद' कहाँ मंज़िल की आसाइश
ग़ुबार-ए-राह हूँ बाँग-ए-दरा-ए-कारवाँ हूँ मैं
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
ख़ुदा वो दिन भी दिखाए कि मैं कहूँ 'बेख़ुद'
जनाब-ए-'दाग़' से मिलने मैं राम-पूर आया