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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
दोस्ती का भी तुझे पास न आया हे हे
तू ने दुश्मन से किया मेरा गिला मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
चली अब गुल के हाथों से लुटा कर कारवाँ अपना
न छोड़ा हाए बुलबुल ने चमन में कुछ निशाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक
जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे